आह लिखता है

मेरे ज़ानिब से सब कुछ है मुआफ़ उसे
मेरे फ़साना-ए-दर्द को आह लिखता है

लिख दीं सब शामें हसीं रक़ीब के नाम
मेरे ख़ातिर फ़क्त रातें स्याह लिखता है

थी मुझसे ही शायद उसे कुछ रंजिश सी
क़िस्मत सबकी जो बादशाह लिखता है

लिख दी है नाम उसके ज़िन्दगी तमाम
कहाँ मेरे लिए वो एक निगाह लिखता है

नहीं लिखा है वो तेरे नसीब में अमित
नाम उसका क्यों ख़्वाह मख़ाह लिखता है

रुसवा हमें खूब किया

क्या किया गुनाह तुझे रुसवा न होने दिया
तूने बड़ी अदा से रुसवा हमें खूब किया

दो चार दिन तक हमने बहलाया दिल तेरा
फिर क्या करते तुम, दिल जो तेरा ऊब गया

पहले तो तुमने खुद ही दूर किया हमको
जब हम दूर हुए तो क्यों ताज़्जुब किया

सुनते थे हम इश्क़ एक आग का दरया है
तैरा जब तक तैर सका, फ़िर मैं डूब गया

था हसीं सफर तेरे साथ तब तक “अमित”
बस जब हमने तुझे हमसफ़र मंसूब किया

घाव भरता नहीं

मरा करे कितना ही कोई किसी पर
बिना किसी के कोई मरा करता नहीं

हो चली है आदत सी रुसवा होने की
कोई लाख कहे बुरा अब अखरता नहीं

क्या देता है धमकी मुझे मुंसिफ तेरा
जा कह दे जाके उसे मैं डरता नहीं

सुनते हैं होती है राह दिल की दिल से
फिर दर्द तेरे सीने में क्यों उभरता नहीं

वक़्त भर देता है हर एक घाव “अमित”
न होना तेरा घाव नहीं सो भरता नहीं

बस यूँ ही

हो रही थी ज़िन्दगी बसर यूँ ही
बस हो गयी उसके नज़र यूँ ही

खुलने भी न पाए थे लब उसके
हो गयी दिल को ख़बर यूँ ही

हर सू दिखाई देता था वो जलवागर
बीते थे मेरे शाम-ओ-सहर यूँ ही

कर लिया एक रोज़ किनारा उसने
हुआ गिनती में शुमार यूँ ही

नहीं तस्सल्ली दरकार “अमित”
हो जाती है ज़िन्दगी बसर यूँ ही

मेरा माज़ी

मिल गई क्या पुरसुकून रिहाई मुझे
पुकारता नहीं अब मेरा माज़ी मुझे

वो जो हुआ करता था क़ातिल मेरा
बना गया रहनुमा मेरा माज़ी उसे

जिसके लिए फूँक डाला मुस्तकबिल
क्योंकर याद रहे मेरा माज़ी उसे

फ़रेब की बुनियाद पर कैसे टिकता
खण्डर उसे तके मेरा माज़ी उसे

ख़ैर छोड़ मेरी अपनी बता “अमित”
क्या रिहा कर पाया तेरा माज़ी तुझे

मुहब्बत क्या है

कौन जाने इस जहाँ को हुआ क्या है
है दोस्ती कहाँ और मुहब्बत क्या है

दे कर दगा हँस कर पूछता है मुझे
क्यों चल गया पता शरारत क्या है

सूझी क्या रुसवा करने की तरकीब
तेरे चेहरे पर ये मुस्कराहट क्या है

हर बार मुझे ही मेरा बेचा यकीन
कोई सीखे तुझ से तिज़ारत क्या है

करके इश्क़ हुआ है बदनाम “अमित”
कहते हैं सभी तेरी सदाक़त क्या है

कुछ बातें कहने की

देखते हैं उन्हें कुछ कहते नहीं
कुछ बातें कहने की नहीं होती

है चमक उनकी आँखों में भी
सब ज़ीनत गहने की नहीं होती

सोचते हैं उनको अक्सर रातों में
बातें अपने चाहने की नहीं होतीं

कभी तो मिले चाहत का सिला
आशिक़ी सहने की नहीं होती

न कोशिश कर रोकने की “अमित”
क्या नदी जो बहने की नहीं होती

इंतज़ार किसी का

तस्सवुर किसी का न इंतज़ार किसी का
इस दिल को नहीं अब ऐतबार किसी का

सँजोया करती थी कभी ये भी सपने हसीं
आँखें करती नहीं अब दीदार किसी का

न दवा करे असर, न हो दुआ कुबूल
इतना भी न हो कोई बीमार किसी का

आँख खुली तो खुद को अकेला ही पाया
किसी काम नहीं आया करार किसी का

ढल चुका है दिन, कोई न आया “अमित”
मत देख तू अब रस्ता बेकार किसी का

आँखों में तेरी

चर्चा-ए-आम है ज़हानत का तेरी
मैंने देखी है शरारत आँखों में तेरी

यूँ तो तूने न किया इज़हार-ए-वफ़ा
मैंने देखी है इज़ाजत आँखों में तेरी

अब तक क्यों न थामी कलाई मेरी
मैंने देखी है शिकायत आँखों में तेरी

लग चुका है तुझे भी इश्क़ का रोग
मैंने देखी है हरारत आँखों में तेरी

है आज मेरे लुटने की रात “अमित”
मैंने देखी है क़यामत आँखों में तेरी

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